बुद्ध ने कहा है कि स्वयं का दीपक स्वयं बनो। हम अक्सर दूसरो में गलती देखने मेंलग जाते है। दूसरे ही गलत है में तो पाक साफ हूं इस से बात बनने वाली नही। दर असल होता क्या है कि आप ने कोई काम किया उसमे आपने अपना बेस्ट नही दिया। यह खुद का हुनर निखारने की बात है। माना कि आप कोई लेख लिख रहे है आप को उसमे प्रूफ रिडिंग करनी है एक बार फिर से चेक कर ना था। थोड़ा और एडिटिंग की ज़रूरत थी। आपने वह नही किया। अब बाद में आप के काम की भर्त्सना हुई। आप ने दोष किसी ओर पर मण्ड दिया। आप समजे आप बच गए परन्तु अगले काम केलिए जो आप को तराशने की ज़रूरत थी वो धार आप मे नही आई कारण आपने दूसरो पट दोष मण्ड दिया। अगर आप खुद इसकी ज़िमेदारी लेते तो आप फिर से अपनेको बारीकी से देखते ओर उन सब बिन्दुओ पर ध्यान देते जैसे कि जरूत्त थी ।फिर से एडिटिंग करना।इस पूरे वाकिये में आप उन सब बारकियो को देखते को आप को एक अच्छा लेखक बना देती। जब हम स्वयं पर ध्यान देने लगजाते है तब अन्य लोग गौण हो जाते है ओर सब से प्रमुख की आपको अपनी ज़िमेदारी लेना आना चाहिए। आप को यह मालूम हो कि में दोषी हु दोष मुज में है किसी अन्जू मंजू या रंजू में नही। दोष मुजे में नही। बाकी सब गौण है और स्वयम में दोषी होना एक साधना है । खेर साधारण से बात है जो खुद में दोष देख पाए वो आगे बढ़ गए और जो नही सुधार पाए खुद को तो अब कोर्ट के चक्कर काट रहे है।