आसिफ उस मानसिकता की भेंट चड़गई जिसमे एक लड़की को सिर्फ उसकी योनि जाना जाता है इस समाज ने महिला को एक मजदूर एक कामगार एक हुक्म माननेवाली एक डरी सहमी ओर तब अच्छा जाना की वो पुरुष की कितनी बात मानती है।एक लड़की महिला पत्नी बेटी दोस्त साथ काम करने वाली महिला को पुरुष तभी अच्छा मानता है जब वो उसकी हर बात मने उसके कहे अनुसार चले उसकी माँ की सारी गालिया बर्दास्त करे पुरुष की सेवा में लगी रहे। जिस मंदिर के पुजारी नेआसिफ को हवस का शिकार बनाने की सोची उस की सोच महिला को लेकर कई बरस पहले बानी होगी। लड़की एक वस्तु होती है औरत को पेर की जूती समजो उस को कंट्रोल में रखो उसने अपनी माँ को इसी हाल में देखा अपने आसपास की महिलाओं को इसी रु प में देखा और फिर औरत को एक धर्म जाती समाज मे देखा उसकी इस सोच ने मंदिर के पुजारी बनने से कोई बदलाव नही आया। मंदिर का पुजारी होना उसकी जाति के आधार पर मिलने वाला एक काम मात्र है जिस से उसका परिवार चलता है वो उसका भरणपोषण का एक जरिया है जो उसको एक विशेष वर्ग का होने से मिला वो ब्राह्मण है इसलिये मंदिर का पुजारी बनगया ओर एक बात उसको समझ आईं की उसकी कोई भी ग़लती पकड़ में नही आएगी वो ह भूल गया कि अब महिला एक यौनि मात्र नही है वो सिर्फ पुरुष मित्र की सारी बात मानने वाली अछि महिला नही है। वो उसकी माँ की सारी गालिया भी बर्दास्त नही करेगी वो एक प्रचंड ज्वाला है जो अपने वजूद को कायम रखेगी अपने हक के लिए लड़ेगी सवाल उठायेही चुप नही रहेगी।
आसिफ का आक्रोश हर एक उस महिला का आक्रोश है जो हर दिन घुटती है हर वक़्त जिल्लत झेलती है अकेली रहती है अपना वजूद कायम करनें के लिये हर मुसीबत का सामना करती है । आसिफ जिंदा है निर्भया जिंदा है हर औरत कर दर्द में हर संगर्ष में हर वजूद में हर पहचान में।
अब मंदिर का पुजारी सोचेगा अब हर वो सक्ष डरेगा जो औरत को आज्ञाकारी साथी मानता है जिसदिनऔरत अकेले चल देती है उसदिन से वो हज़ार गुना ताकतवर हो जाती है फिर डरती नही सिर्फ डरती है