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डॉ रजनी अनुरागी |बुद्ध अगर तुम औरत होते

बुद्ध अगर तुम औरत होते

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बुद्ध अगर तुम औरत होते

तो इतना आसान नहीं होता गृहत्याग

शाम के ढलते ही तुम्हें हो जाना पड़ता

नजरबंद अपने ही घर और अपने ही भीतर

हजारों की अवांक्षित नजरों  से बचने के लिए

और वैसे भी मां होते अगर तुम

राहुल का मासूम चेहरा तुम्हें रोक लेता

तुम्हारे स्तनों से चुआने लगता दूध

फिर कैसे कर पाते तुम

पार कोई भी वीथी समाज की

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घने जंगलों में प्रवेश करने

और तपस्या में तुम्हारे बैठने से पहले ही

शीलवान तुम्हें देखते ही स्खलित होने लगते

जंगली पशुओं से ज्यादा सभ्यों से भय खाते तुम

ब्राह्मण तुम्हारी ही योनि में करते अनुष्ठान

 और क्षत्रिय शस्त्रास्त्र को भी वहीं मिलता स्थान

वैश्यों ने पण्य की तरह बेच कर बना दिया होता वेश्या तुम्हें

और और ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं है मुझे

कि शूद्रों का भी होते तुम आसान शिकार

औरत के मामले में होते हैं सब पुरुष

अभिशप्त जीवन जीने को जब होते मजबूर

तब बताओ कैसे मिलता बुद्धत्व तुम्हें

और तुम कैसे कहलाते बुद्ध

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अगर रह जाते तुम अछूते

तो तुम्हारी चमड़ी के सूत सूत को देना होता हिसाब

तब भी  क्या तुम्हें सम्मान देता तुम्हार परिवार

तुम्हारे स्वागत के लिए आता  क्या सिद्धार्थ

क्या दौड़ी दौड़ी आती महामाया तुम्हें गले लगाने

शुद्दोधन मान लेते क्या तुम्हें परम ज्ञानी बिटिया

राहुल कर पाता गर्व तुम्हारा पुत्र होने पर

न जाने कितनी ही बार चीर दी जाती

तुम्हारी देह लांछनों की थ्रेसर मशीन से

सारी जनता करती तुम्हारा बहिष्कार

तुम्हें मिलती नसीहतें हजार

नहीं उठता तुम्हारे समर्थन में एक हाथ

करुणा घृणा में बदल जाती

बोलो ! कैसे बन पाते बुद्ध

कैसे कह पाते – अप्प दीपो भव

जब तुम्हारे आत्मसम्मान को कर दिया जाता राख

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चौहद्दियों से परे जाने पर

क्या तुम्हें निरपराध होने की गवाहियां मिल जातीं

कितने ही ऋषि मुनियों की तपस्या भंग करने का लगता अभियोग

बांध कर उसी बोधिवृक्ष के साथ  कर दिया जाता जीते जी दाह संस्कार

एक गाली बन कर रह जाता तुम्हारा नाम

भयावह क्रूरता के आगे ठगा सा रह जाता सम्यक ज्ञान

हवा हो गया होता बोधिवृक्ष और बुद्ध का नाम

और न कहीं होता  ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’

बोलो बुद्ध अगर तुम औरत होते

तो क्या इतनी आसानी से मिल जाता

तुम्हें निर्वाण का अधिकार

 बरनी

मां ने बड़े मन से मंगवाई थी खुर्जा से

एक बड़ी और मजबूत चूड़ीदार ढक्कन वाली बरनी

जिसमें डाला करती थी वो खूब सारा  आम का अचार

जबकि खुद उसे पसन्द नहीं थीं खटास वाली चीजें

खट्टा चूख कहते ही उसके दांत खटास से भर जाते थे

खट्टी छाय तक नहीं पीती थी मां

तो खट्टी कढ़ी तो बन ही नहीं सकती थी

कलमी आमों की बनाती थी मीठी चटनी

और आमों की हल्की खट्टी मीठी रसेदार सब्जी भी

जिसमें रहता था सौंफ का सौंधियाता जायका

जिसकी मिठियाती  गुठली को खूब देर तक चूसती रहती थी

जैसे बून्द बून्द रस समेट लेना चाहती हो अपने भीतर

आम के अचार के लिए आम आते

दाब से कटते, मींग अलग फांक अलग

फांकों में लगता नमक रात भर

चारपाई पर बिछी चादर पर दिन की उजली धूप में

एक एक फांक को उलट पलट कर धूप से भर दिया जाता

जैसे सूरज से हर फांक के लिए मांग ली जाती हो लम्बी जिन्दंगी

मुझे याद है माँ ने खूब धो माँझ कर

बरनी को धूप में नहलाया जैसे नहलाती थी मुझको

फिर धूप में नहाई बरनी में

सारे मसाले अनुभव की तराजू जैसे हाथों से

तौलकर मिला दिए हरेक फाँक के भीतर तक

और डाल दिया कोल्हू से पिराया सरसों का तेल ऊपर तक

 बन्द करके रखी बरनी को खूब भरपूर धूप लगाई गई

हर सीलेपन से बचाया जाता अचार भरी बरनी को

मगर उसकी हथेलियों  में या कहूं कि उसके नयन कोरों में

शायद यही सीलापन संचित रहता रहा  सालों साल

जैसे खट्टा अचार चलता रहता था कई कई साल

फिर धीरे धीरे मां छीजने लगी

मां ने अचार डालना भी बंद कर दिया

घर के तमाम बाशिन्दे नए नए रिश्तों में बंध गए

लेकिन पैर पसारने लगी थी रिश्तों में बढ़ती खटास

घर बनता जा रहा था खटास से भरी बरनी की तरह

और बरनी थी कि होती जा रही थी  लगातार खाली

उसके आम अब खास हो गए थे और वो पड़ गई थी पुरानी

अब मॉड्यूलर किचन में बरनी रखने की कोई वजह नहीं बची थी

फिर भी मां ने उसे सम्भाल के रखा था अपने सीने से लगाके

मां लगातार उसकी धूल को  झाड़ती

जैसे उसके बहाने खुद को नया करती हो

एक दिन बरनी को फैंक दिया गया कूड़े के ढेर पर

बरनी अचार की फांकों सी बिखर गई

और मां के भीतर भी जाने क्या क्या टूट गया उस दिन

उस दिन माँ अपने सिमटे से कोने में बड़बड़ाती रही

और करती भी क्या सिवाय बड़बड़ाने के

किसी बेटी को ही दे देते तोड़ क्यों दी

वो कोई पौधा ही रोप लेती इसमें

जैसे वो सौंपना चाहती हो अपनी कोई विरासत अपनी बेटी को

सम्पत्ति चाहे बेटे सम्भाले पर उसको भरोसा था

कि उसकी सम्भावनाओं को बेटी ही सम्भाल सकती है

कम से कम बची तो रहती बरनी

जैसे बची रहती है मां अपनी बेटी में

मदर्स डे 10 मई 2020

रजनी अनुरागी दिल्ली विश्वविद्यालय की जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज में प्रोफेसर है कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित है  जैसे किउन्हें प्रथम दिलीप अश्क स्मृति सम्मान–2011 और शीला सिद्धांतकर सम्मान -2011 से सम्मानित किया गया हैऔर अपनी कविताओं में स्त्री के दर्द को बहुत गहराई से व्यक्त करती है|उनका पहला कविता संग्रह बिना किसी भूमिका के उसके अलावा दर्जनों के पार खिलता फूल और कई पत्रिकाओं का संपादन कर चुकी है रजनी अनुरागी |

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