सीखने को महत्व दे पैसे, आराम या सुख को नही

1718 जोसिये फ्रैंकलिन अपने 12 साल के बेटे बेंजामिन को बहुत ही अच्छे चलते हुए फैमिली बिज़नेस (जो कि बोस्टन में था) मोमबत्ती बनाने के में लाना चाहते थे। ये बिज़नेस अच्छा था और इस मे काम  भी कम था क्योँ की बेंजामिन को बहुत सी बाते इस मोमबत्ती बनाने के बारे में पहले से हि पता थी। काम भी कम रहेगा और पैसा भी अच्छा मिल जाएगा। बेंजामिन के पिता ने सोचा क्योँ की  इस मे सिर्फ 7 साल की अप्रेंटिशिप थी । ओर बाद में बेंजामिन को बिज़नेस संभालना ही था। परंतु बेंजामिन के दिमाग मे कुछ और था। उनके पिताजी की पसंद के उलट बेंजामिन अपने बड़े भाई के द्वारा खोली गई नई नई प्रेस में काम करना चाहता थे। इस काम मे ज्यादा मेहनत थी और अप्रेंटिशिप भी 9 साल की थी। पैसा नही के बराबर था और प्रिंटिंग बिज़नेस बहुत जी अस्थाई था मोमबत्ती के मुकाबले चला तो चला नही तो नही चला। जोशिया फ्रैंकलिन अपने बच्चे को नही  छोड़ना चाहते थे पर उन्होंने फ्रेंकलिन पर कोई दबाव नही डाला। क्यों कि उनका एक बेटा पहले भाग  चुका था और फ्रेंकलिन को वो खोना नही चाहते थे कुछ भी  हो जो जाए बेन्जामिन अपनी पसंद का काम करने के लिए आज़ाद थे परन्तु ये बहुत परेशान करने वाला काम था। जोशिया फ्रेंकलिन ने बेन्जामिन की बात मान ली पर खुस नही थे। इसलिए चुप रहे क्यों कि बेटे की खुशी थी।

युवा बेंजामिन ने एक बात अपने पिता से नही  कही की वो लेखक बनना चाहता है। और सीखना चाहता है। ये बहुत मुश्किल तरीका था परंतु ज़रूरी था। दुकान में अधिकतर काम हाथ से करना था।ऑपरेटिंग मशीनें चलानी थी। परंतु बेंजामिन को एक बात पता थी कि एक काम मिलेगा जो उसको बहुत पसंद था और वो था स्क्रिप्ट को पढ़ना और प्रूफ रीड करना था कभी किताब को किसी पेम्पलेट को ओर किसी टेक्स्ट को। ओर हमेशा ही कोई नई से नई किताबें उसके पास रहेगी पड़ने को। कई साल प्रेस में काम करने के बाद उसने पाया कि कुछ उसकी पसंदीदा किताबें अंग्रेजी अखबार से आई है और उनको फिर से रीप्रिंट करना था। बेंजामिन का काम था एसी कई किताबो की प्रिंटिंग को देखना जो अब उसको उन सब को पढने का मौका देने वाली थी।और इन सब किताबो को बहुत गहराई से पढ़ने का मौका मिलने वाला था। बेंजामिन सोचते थे इन सब राइटर्स की स्टाइल को वो अपनी लेखनी में लाएंगे।इस तरह से समय के साथ बेंजामिन ने लिखने के काम मे इतनी महारत हासिल करली ओर साथ ही अब वो प्रिन्टिंग के बिज़नेस के भी महारती थे और इस काम की सारी बारीकियां बहुत अच्छी तरह से जानते थे

जुरिक पॉलिटेक्निक कॉलेज से ग्रेजुएट होने के बाद 1900 में 21 साल के अल्बर्ट को कम का कोई बड़ा साधन नही मिलने वाला था।  क्यों कि वो पूरी क्लास में सब से निम्न स्थान पे रहे इस से एक बात तय थी इस लेवल की डिग्री के बाद उनको कोई भी शिक्षक की नोकरी तो नही देने वाला था। पर अल्बर्ट को एक बात की बहुत खुशी थी कि अब वो विश्विद्यालय से दूर थे और उनसब फिजिक्स की प्रोब्लम्स को सॉल्व करने के लिए समय निकाल सकते थे जो उनको कई बर्षों से परेशान कर रही थी। अब अल्बर्ट खुद ही सीखना चाहते थे पर फिर भी जिंदा रहने के लिए कुछ तो काम करना जरूरी था। अल्बर्ट अपने पिता के बिज़नेस में को की मिलान में था काम कर सकते थे पर वहाँ उनको कोई टाइम नही मिलेगा।

एक दोस्त की इन्श्योरेंस कंपनी में काम कर सकते थे पैसा भी अच्छा मिलेगा पर उनको फिजिक्स की बारीकियां समजने का समय नही मिलेगा। कुछ समय बाद एक दोस्त ने एक नोकरी के बारे में बताया, बर्न के स्विस पेटेंट आफिस में काम करना था। पैसा ज्यादा नही था पद भी बहुत नीचे था काम करने के घंटे भी बहुत अधिक थे। परंतु आइंस्टाइन इस नोकरी को छोड़ना नही चाहते थे। काम था पेटेंट की ऍप्लिकेशन्स को पढ़ना जिनमे बहुत से वो विषय होंगे जो अल्बर्ट पड़ना चाहते थे। ये सारी वो ऍप्लिकेशन्स होगी जो आइंस्टाइन को सीखने का मौका देगी। और अल्बर्ट को ये सोचने का मौका मिलेगा की किस तरह से या विचार मूर्त रूप में काम करेगा। और इस तरह सोचने से उसका दिमाग एक नई सोच और दिशा में काम करेगा। ये एक तरह का माइंड गेम बन जएगा अल्बर्ट को सॉल्व करने के लिए। ओर उसके बाद पूरा समय मिलेगा उस के बारे में सोचने के लिए ओर उस नए अविष्कार को बना के देख ने केलिए।

अल्बर्ट ने वो नोकरी के लि। दोनों ही परिस्थिती में सुन ने में अजीब लग रहा है कम पैसा, ज्यादा काम, काम के घंटे भी बहुत अधिक। बेंजामिन ने भी यही किया।

इन दोनों घटनाओं से एक बात साफ है। आइंस्टाइन व बेंजामिन जो कि दो नो हो महान हस्तियां है उन्होंने एक बात चुनी की पहले सीखना जरूरी है। अगर आप एक समय तक सिर्फ सीखने वे ध्यान दे तो जो आप को वो प्रैक्टिस ओर महारत हासिल होगी वो आप को उस चीज़ का महारती बना देगी।

डॉ अंजू गुरावा

अस्सिटेंट प्रोफेसर

अंग्रेजी विभाग

दिल्ली बिश्वविद्यालय

drgurawa@gmail.com

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Dr. Anju Gurawa

Being a girl from the most backward district {Chittorgarh} from Rajasthan I was always discouraged to go for higher education but my father Late Mr B. L. Gurawa who himself was a principal in the senior Secondary insisted for higher studies and was very keen to get his children specially girls to get education.

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